कौन कहेगा आग को आग
इन दिनों के परिवेश में
समझेगा पानी को पानी ही
सोचता हूँ तो सिहर कर रह जाता हूँ
हवाएँ अचानक बदली हैं
खिलने की प्रक्रिया में चुभने लगी है धूप
मिट्टी जलने लगी है इधर
पानी में बुलबुले फूट रहे हैं कई दिनों से
कई दिनों से उलझे से हैं जन-जीवन
खौलने लगा है आसमान
तन-बदन कुछ के नहीं हैं कहने में जरा भी
जरा भी लोग नहीं चाहते शांत रहना कई दिनों से
इधर कई दिनों से समय नहीं है किसी के कहने में
अजनबी के-से हालात हुए हैं परिवेश के
घर, घर जैसा नहीं दिखा है
बाहर की हर चीज घर जैसी लगी है
ये समय ले-देकर कहने भर का समय है
पहले वाला समय नहीं रहा
प्रतिबद्ध होकर रहते थे जहाँ कुछ लोग
वही करते थे कहते थे जो कुछ व्यवहार में
कौन है जो करेगा वही कहता है जो कुछ
बड़बोलेपन में बड़े ही घमंड से
गलत को गलत कहेगा समझेगा सही को सही विवेक से
सोचता हूँ तो मौन रह जाता हूँ